Madras High Court की मदुरै बेंच ने हाल ही में एक मंदिर के वार्षिक उत्सव के निमंत्रण में अनुसूचित जाति (SC) समुदाय को शामिल न किए जाने की आलोचना की है। अदालत ने यह कहा कि समुदाय के लोगों को इसलिए निमंत्रण से बाहर रखा गया क्योंकि उन्होंने इस कार्यक्रम के लिए कोई धनराशि दान नहीं की थी। न्यायमूर्ति एम.एस. रमेश और ए.डी. मारिया क्लेट की पीठ ने आदेश दिया कि भविष्य में मंदिर के निमंत्रण पत्रों में किसी जाति का नाम नहीं लिखा जाएगा।
यह आदेश उस याचिका के आधार पर आया, जिसे के.पी. सेल्वराज, अध्यक्ष, नाडुविकोट्टाई आदि द्रविड़ कल्याण संघम ने दायर किया था। याचिकाकर्ता ने मांग की थी कि मंदिर के वार्षिक उत्सव के निमंत्रण में ‘ओरार’ (गांववाले) के स्थान पर ‘आदि द्रविड़’ शब्द का उल्लेख किया जाए।
मंदिर के निमंत्रण में ‘आदि द्रविड़’ समुदाय का बहिष्करण
मंदिर के कार्यकारी अधिकारी ने निमंत्रण पत्र में विभिन्न प्रायोजकों के नाम के साथ उनकी जाति का उल्लेख किया था, लेकिन ‘आदि द्रविड़’ समुदाय का नाम शामिल नहीं किया गया था। इसके बजाय, उन्हें केवल ‘ओरार’ के रूप में संबोधित किया गया और यह कहा गया कि उन्होंने कोई योगदान नहीं किया है। यह पूरी स्थिति जातिवाद और भेदभाव की ओर इशारा करती है, जो अब तक समाज में व्याप्त हैं।
कोर्ट ने इस मामले में कहा कि यह स्थिति बेहद शर्मनाक है कि एक सरकारी अधिकारी इस प्रकार के भेदभाव का समर्थन कर रहा है। न्यायमूर्ति क्लेट ने कहा, “यह चयनात्मक दृश्यता प्रणालीगत असमानता को मजबूत करती है, जिससे दलितों को समाज में दोनों, सामाजिक मूल्य और गोपनीयता से वंचित कर दिया जाता है और उनकी सामाजिक और धार्मिक कार्यों में वास्तविक और सार्थक भागीदारी छीन ली जाती है।”
सामाजिक असमानता को बढ़ावा
अदालत ने यह भी कहा कि इस तरह की असमानताओं को खत्म करने की आवश्यकता है, ताकि दलितों को अपनी जाति पहचान घोषित किए बिना सम्मानित और पहचाना जा सके। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि धर्मिक आयोजनों में दलितों की भागीदारी केवल प्रतीकात्मक या सांकेतिक नहीं होनी चाहिए, बल्कि वह सार्थक और वास्तविक होनी चाहिए।
न्यायमूर्ति क्लेट ने आगे कहा, “यह चयनात्मक दृश्यता प्रणालीगत असमानता को और बढ़ावा देती है, जो दलितों को न केवल समाजिक मूल्य और गोपनीयता से वंचित करती है, बल्कि उनके लिए समाज में सार्थक भागीदारी की संभावना को भी समाप्त कर देती है।”
2009 में भी हुआ था विवाद
यह पहला मौका नहीं है जब इस मंदिर में ऐसा विवाद उत्पन्न हुआ हो। 2009 में भी इसी मंदिर में एक समान विवाद उत्पन्न हुआ था, जिसके बाद एक शांति समिति की बैठक बुलाई गई थी। हालांकि, यह मामला फिर से अदालत में पहुंचने पर न्यायमूर्ति रमेश और क्लेट ने इसे गंभीरता से लिया और राज्य के अधिकारियों से इस मुद्दे पर ठोस कदम उठाने की मांग की।
सरकारी अधिकारी का भेदभावपूर्ण रवैया
कोर्ट ने यह भी कहा कि यह हैरान करने वाली बात है कि एक सरकारी अधिकारी, जो खुद को निष्पक्ष और समाज में समानता स्थापित करने का काम करता है, इस प्रकार के भेदभावपूर्ण रवैये का समर्थन कर रहा है। इसने यह सवाल उठाया कि आखिर क्यों एक वर्ग विशेष को उनके योगदान के बिना भी ‘ओरार’ जैसे सामान्य शब्दों में समाहित किया जा रहा है, जबकि उनका विशिष्ट नाम या पहचान न केवल हाशिए पर डाल दी जाती है, बल्कि उनका सम्मान भी कम किया जाता है।
धार्मिक आयोजनों में दलितों की हिस्सेदारी की अहमियत
कोर्ट ने यह भी जोर दिया कि दलितों को धार्मिक आयोजनों में भाग लेने का अधिकार है, लेकिन यह भागीदारी केवल औपचारिक नहीं होनी चाहिए। इसे सार्थक और असल माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति क्लेट ने कहा, “दलितों को धार्मिक आयोजन में भाग लेने का अधिकार है, लेकिन यह उनकी पहचान को छिपाकर नहीं, बल्कि पूरी तरह से सम्मान और सहभागिता के साथ होना चाहिए।”
आदि द्रविड़ समुदाय की विशेष पहचान की मांग
याचिकाकर्ता ने कोर्ट से यह भी अनुरोध किया था कि मंदिर के निमंत्रण में ‘आदि द्रविड़’ शब्द का इस्तेमाल किया जाए, ताकि उस समुदाय की विशिष्ट पहचान को पहचाना जा सके। कोर्ट ने इस पर विचार करते हुए कहा कि जाति नामों को धार्मिक और सामाजिक आयोजनों से बाहर रखा जाना चाहिए, ताकि किसी प्रकार का भेदभाव न हो।
मद्रास हाई कोर्ट का यह आदेश समाज में जातिवाद और भेदभाव को लेकर एक अहम संदेश देता है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि धार्मिक आयोजनों में जाति और पहचान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है और सभी को समान सम्मान और अवसर मिलना चाहिए। कोर्ट के इस फैसले से उम्मीद की जा रही है कि भविष्य में ऐसी परिस्थितियों में सुधार आएगा और समाज में समानता को बढ़ावा मिलेगा।